नाहर वंश, परमार राजपुत जाति से निसृत हुआ है । भीनमाल के परमार राजा भीमसेन के पुत्र उपलदेव ने उपकेशपट्टन नामक नगर बसाया । इस नगर का नाम कालान्तर में उपकेशपुर हुआ , वर्तमान में ओसियां है । राजा उपलदेव परमार (प्रमार) वंशीय राजपुत थे । ओसियां में चामुण्डा देवी का मंदिर बनाकर बलि आदि देकर पूजा करते थे । वीर निर्वाण सं. 70 (ईस्वी पूर्व 457 तथा विक्रम पूर्व 400) में पार्श्वनाथ भगवान के छठे पट्टधर आचार्य रत्नप्रभसूरि ने उपलदेव सहित उपकेशपुर के लाखों लोगों को जैन धर्मावलम्बी बनाया इन्हें ओसवाल महाजन जैन कहा गया । उपलदेव को श्रेष्ठी गोत्र दिया गया । अन्य समूह के लोगों को अन्य गोत्र दिये गये । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने कुल 18 गोत्र बनाई जो ओसवालों की मूल गोत्र कहलाती हैं । कालान्तर में इन 18 गोत्र की 498 उप-गौत्र निसृत हुई।
आ. रत्नप्रभसूरि ने चामुण्डा देवी को सचियामाता नाम देकर ओसवालों की कुल देवी घोषित तथा बलि आदि प्रथा बन्द कराई ! राजा उपलदेव , जो अब श्रेष्ठी गोत्रीय ओसवाल जैन बन गये थे, ने ओसिया में एक जैन मंदिर बनवाया जो आज भी विद्यमान है । उपलदेव के मंत्री उहड भी जैन बन गये थे, उन्होंने मंदिर प्रतिष्ठा में अतुल्य योगदान दिया।
परमार राजा भारत के कई राज्यों में राज करने लगे । उनके प्रथम राजा एवं उनकी वंशावली की खोज आज भी हमें मिलती है । इस वंश के राजा -
१) प्रथम परमारजी थे।
२) पंखाजी
३) परखाजी
४) स्थामरखजी
५) धूमरिखजी
६) भरिउजी (भीमजी)
७) बहिन्दजी
इस प्रकार पीढ़ीयाँ गुजरती गई । फिर 35 वी पीढी में आसधर जी हए थे जो देपालजी के पुत्र थे। कालान्तर में परमार राजा भारत के कई राज्यो में राज्य करने लगे।
वीर निर्वाण 70 वर्ष (इसवी पूर्व 457 तथा विक्रम पूर्व 400) मे आचार्य देव श्रीमद् रत्नप्रभू सूरिश्वर जी हुए थे।
परमारों की नौवीं पीढ़ी में धीररावजी राजा ने राज्य किया । इसी परमार वंश की 16 वी पीढ़ी में राजा प्रेमरावजी हुए जिन्होंने खम्बाज राज में राज्य किया तथा चक्रवर्ती कहलाये । फिर 31 वी पीढ़ी में राजा विजयपालजी हो जो खम्बाज छोडकर कुपनगर में राज्य करने लगा । 32 वी पीढ़ी में महाभीषण 33 वी पीढ़ी में राजा भीमरावजी और ३४ वी पीढ़ी में राजा देपालजी हुए थे । कहते है कि इस काल तक उस वंश ने जैन धर्म से विमुख होकर मांस भक्षण, शिकार हिंसा आदि प्रारम्भ कर दिया था।
आचार्य मानदेव सूरि भगवान महावीर के 22 वे पट्टधारी थे। आपका समय काल वीर निर्वाण संवत 649 से 731 (82 वर्ष) का था । इन्होंने ही नाडौल में लघुशांती की रचना की थी।
आचार्य मानदेव सूरि ने कुपनगर (नाडोल के पास) चातुर्मास किया परंतु वहाँ हो रहे मासभक्षण शिकार और हिंसा को देखकर विहल हो उठे । उन्होंने इस वातावरण को देख कर चामुण्डा माता को आव्हान कर ध्यान में बैठ गए । चामुण्डा माता ने जब मानदेव सूरि की व्यथा जानी तो उसने एक दिन शेरनी का रूप धारण कर वहाँ के राजा देपालजी के पुत्र को उसकी माता की गोद से उठाकर जंगल में ले गयी ।
चारों और हाहाकार मच गया । राजा का पुत्र गायब हो गया । बहुत खोज की, पुत्र नहीं मिला । इधर मानदेव सूरिजी विहार कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक शेरनी की गोद में बच्चा है और वह दुग्ध पान कर रहा है । आचार्य भगवंत ने ज्ञान से जाना कि शेरनी और कोई नही है भवानी माता (चामुण्डा) ही है।
राज्य के सभी मानव इकट्ठे हुए और राजा देपाल को कहने लगे, राजन ! यहाँ बहुत बड़े महात्मा आये हुए है । जिनसे शायद जानकारी मिल सके । राजा देपाल अपने सामन्तो को लेकर आचार्य भगवंत के पास पहुँचे और अपनी व्यथा सुनाई।
आचार्य भगवंत ने ध्यान से सुनकर कहा कि दक्षिण दिशा में जाओ तुम्हारा पुत्र मिल जायेगा । राजा अपनी प्रजा और सामन्तों के साथ दक्षिण दिशा में गया परंतु शेरनी की गर्जना सुनकर भागकर वापस लौट आए और मानदेव सूरि को जो घटना हुयी वो बतायी ।
आचार्य भगवंत ने कहा है राजन इस प्रकार जाने से भला शेरनी आपको पुत्र कैसे लौटा देगी । तुम वहाँ जाओ और नवकार मंत्र तथा भगवान महावीर को ध्यान करते हुए मेरा नाम लो । तुम्हे तुम्हारा पुत्र मिल जायेगा । देपालजी सामंतो के साथ फिर वहीं पहँचे और नवकार मंत्र महावीर और मानदेव सूरि का नाम लेने से देपाल पुत्र को शेरनी ने लौटा दिया और जंगल की और चली गई।
चारों और खुशीयाँ छाने लगी । देपाल अपनी प्रजा के साथ मानदेव सुरी के पास आया और कहने लगा हैं प्रभु मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ? आचार्य भगवंत ने कहा हम साधु है, हमें कुछ नहीं चाहिये और आप जैन धर्म स्वीकार कर अपने कर्मो का क्षय करो । राजा देपाल एवं प्रजा ने जैन धर्म अंगीकार किया । बालक का नाम आसधरजी दिया । क्योंकि बालक सिंहनी के पास मिला था, अत: उनका नाहर गोत्र आचार्य द्वारा दिया गया । इस प्रकार आसधरजी से नाहर वंश का प्रारम्भ हुआ । वे ही नाहरों के पित्र पुरूष हैं । यह घटना वीर निर्वाण संवत 717 (विक्रम संवत 247 तथा इसवी संवत 190 की है ।) ..